मेरे अपने
दोस्तो,
एक जीवविज्ञान सायंटिस्टने पानी मे रहने वाले सभी जैविक प्रजाती का अध्ययन करने की ठाणी। सब से पहले उसने एक जाल खरीद लिया। वो अलग-अलग जगह के पानी मे जाल डालता और जो भी जीवजंतू उस जाल मे फंस जाते, उनका बारीके से निरीक्षण कर उसकी मालूमात अपनी डायरी मे नोंट कर लेता था। साल दो साल मे उसने हजारो जलचर का डेटा इकट्ठा कर लिया। जब उसे महसूस हुआ, इन अनमोल मालूमात की एक किताब बननी चाहिए। तब उसने किताब कि प्रस्तावना मे सबसे पहले सारे जलचर एक इंच से बड़े होते है। इस वाक्य से सुरूवात की। क्योँ के उस के जाल मे कभी भी एक इंच से छोटा जिव दिखाई ही नही दिया था। उसकी बात उसके हिसाब से सोला आने सच भी तो थी। ये उसकी एक महान खोज है, ऐसे भ्रम मे था।
जब दुनिया के सामने ये बात आयी तो वो और उसकी महान खोज मज़ाक बन गई। उसका दावा खोखला निकलने से सारी मेहनत जाया हो गई।
सायंटिस्टने कडी मेहनत-मशक़्क़त, बड़े इमानदारी और लगन से रिपोर्ट बनाई थी। फिर ग़लती कहाँ हुई? ग़लती यही थी, जो जाल वो इस्तेमाल कर रहा था वो एक इंच का था। उस जाल मे सिर्फ एक इंच से बड़े जानदार पकड मे आते थे, जिसका अध्ययन कर कर के इन्होंने ये थेरी डिक्लेअर कर दि थी।
अब गौर करने वाली बात ये है की, हमने अपने दिलो-दिमाग मे किस साईज के जाल को बिठा रखकर, या किस रंग का चष्मा चढ़ा कर अपना, अपनों का या पुरे मुआशरे का निरीक्षण या अध्ययन कर रहें है। और किस नतीज़े पर पहुँच गए है।
हर एक अपने नज़रिए से देखकर टिप्पणी करता है। मगर जब तालीम ए आफ्ता, मुआशरे के जिम्मेदार, स्कूल और कालेज के प्रिंसीपल, टिचर्स से जब ये सुनने मिलता है की,ये लोग कभी नही सुधरेंगे, इनका कुछ नही हो सकता, ये फाली मे बिगड़े है कफन मे सुधरेंगे। तो इनकी सोच कितनी पूर्वाग्रह से ग्रासित है /prejudice [ कोई मामला या व्यक्ति के तथ्यों की जाँच किये बिना ही राय बना लेना या मन में निर्णय ले लेना।] इन की सोच पे लानत भेजना जरूरी हो जाता है।
मेरे साथ हुए वाक़िया बताना चाहूँगा, मेरा लड़का जब 6 कक्षा मे था उस वक़्त उसके इतिहास के टीचर ने पढ़ाया की सारे आतंकवादी मुस्लिम होते है। जब बच्चे ने ये बात मुझे बताई तो, मै हैरान-परेशान हुआ, स्कूल का मॅनेजमेंट मुस्लिम, टिचर मुस्लिम फिर भी? मै तुरंत प्रिंसीपल के ऑफिस पहुंचकर इस बात का जवाब तलब किया। प्रिंसीपल टिचर को समझाने के बजाये, मुझे ही समझाने लगे।
एक मुस्लिम साहित्यक है। जिनकी 11 किताबे प्रकाशित हुए है।जिस मे हर कहानी का खलनायक मुस्लिम ही लिखा है। मैंने जब इसका सबब पूछा तो बड़े बेशर्मी से कहने लगे ऐसे लिखने से ही गव्हर्नमेंट का एवार्ड मिलता है, और के फंक्शन मे बुलाते है।
कुछ महाभाग तो बेधड़क कहते फिरतें है, कि मै मुसलमान ना होता तो कहाँ के कहाँ पहुँच जाता।
यही आदत, खासियत 10/12 साल पहले तक पिछड़े जाती के समुदाय मे थी। उनमे से जो भी पढ़ लिख कर ऊंची पोस्ट पा लेता था, तुरंत अपनो से संबंध तोडकर अलग-थलग रहने लगता। मगर आज वही बड़ी शानो-शौकत से बढ़चढ़कर के जुलूस मे शामिल होता है।
याद रहे, जुल्म करने वाला सिर्फ हमारा लिबास और नाम देखकर जुल्म कर रहा है। उसे आपकी सोच और रहन-सहन से कोई सरोकार नही।
सच्चर आयोग की रिपोर्ट हो या अन्य कोई, हमे पता चला बस है। अब हमे ये सोचने और कुछ करने कि जरूरत है, हम अपनी कौम के लिए क्या कर सकतें है ? अब कोई नही आने वाला हमारी मदद के लिए। अब हमें ही एक दूसरे का सहारा और हिकमत देने का काम करना है।
सब से पहले हमें दिलो-दिमाग से सारे निगेटिव्ह सोच विचार को हटाकार उसके बदले प्यार-मोहब्बत, हमदर्दी और अपनेपन का एहसास जगाने की जरूरत है। जरा रूककर अपने-आप से सवाल करना। जो पढ़े-लिखे नौजवान जेल मे बंद है, वो क्योंकर उधर है ? उनका मक़सद क्या है ? तो जवाब मिल ही जायेगा। उनका निजी स्वार्थ कुछ भी नही है, उन्होंने बस अपने ज़मीर की आवाज सुनी बस और कुछ नही।
7/8 साल से बहोत सारे तंज़ीमें और बहोत सारे लोग वैयक्तिक तौर पर एजुकेशन पर काम कर रहें है। उसके अच्छे नतीज़े अब दिखाई दे रहे है। पिछ्ले दिनो शाहीन अकॅडमी ने स्कूल और मदरसा से ड्राॅप आऊट बच्चों के लिए एक स्कीम चालु की है, उस बच्चे की पूरी मुक्कमल तालीम होने तक, उसका रहना खाने की ज़िम्मेदारी शाहीन अकॅडमी की होगी। ड्राॅप ऑऊट का मतलब होता है, किसी भी वज़ह से अपने मक़सद को आधुरा छोड़ना। और खुद को नाकारा, निठ्ठल्ला घोषित कर देना। मगर जिस तरह हम अपनी औलाद को बार बार नाकाम होने के बावजूद, कुछ ना कुछ ढंग का करने का प्रयास करते ही रहतें है, क्यों के वो अपना खुन है। ठीक इसी तरह से जब हमारे दिलो-दिमाग मे ये एहसास जगाऐ के ये भी हमारे अपने है, तो कुदरतन इन मे की अच्छाई दिखाई देने लगेगी, इनको समझना आसान हो जायेगा। और समझाना भी।
याद रहे, ना ऊम्मिदी कुफ़्र है। तो आवो आज से अपनो की अच्छाई पर गौर करते हैं। आळी मे जो एकदो आम सड़ने की कगार पर हैं उन्हें धो धाकर, पोचपाच कर फिर से चमकदार बना देतें है। आप सभी ने " दो आँखें बारा हात " तो देखी ही होगी, उतने तो खुंखार, गऐगुजरे और जालिम तो नही हमारे नौजवान।
इंतेखाब फराश
संपादक
स्पंदन बहुभाषिक त्रैमासिक